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इस दोहे में कवि रहीमदास जी कहते हैं कि हमें अपने मन के दुःख को मन के अंदर ही छिपा कर ही रखना चाहिए क्योंकि दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बांट कर कम करने वाला कोई नहीं होता

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